स्त्री चेतना और गुलाबी गैंग



• संजीव खुदशाह

आज जब शहर की पढी लिखी महिलाएं अपना वक्त किटी पार्टी, बीसी पार्टी, रेव पार्टी और विभिन्न धार्मिक आयोजनों में बिताती है। तो वे इस भ्रम में जीती है की वे अतिआधुनिक और विकसित हो चुकी है। वे खुले विचार की है। लेकिन जब गुलाबी गैंग जैसे संगठनों के क्रिया कलापो से सामना होता है तो पता चलता है की वास्तविक स्त्री चेतना क्या है। ऐसी महिलाओं के लिए ये एक सीख लेकर आती है गुलाबी गैंग (फिल्म नही) जिसका जन्म बुदेलखंड बांदा के बीहडो में हुआ।

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर फेसबुक के एक मित्र ने मुझे एक स्टेटस टैग किया जिससे मै बहुत प्रभावित हुआ। उसका मसला कुछ इस तरह था “अंतराष्ट्रीय महिला दिवस स्पा डिस्काउंट, ब्युटीपार्लर, मात्रत्व, स्त्रीत्व के लिए नही मनाया जाता बल्कि इतिहास में इन सब के विरूद्ध हुए संघर्ष को याद करने के लिए मनाया जाता है।“ कितना अंतर है वास्तविक महिला चेतना और उसके भ्रम में। पुरूष को खुश करने की तैयारी में दिन के 24 में से 22 घंटे खर्च करने वाली महिला क्या वास्तविक महिला चेतना से बा वास्ता है। आज की धार्मिक, व्यावसायिक एवं मीडिया व्यवस्था ने स्त्री चेतना को सुंदर, अतिसुंदर, नरम, कोमल नाम के डिब्बे में बंद कर दिया है। आज की आधुनिक चेतन शील स्त्री वही मानी जाती है जो ज्यादा से ज्यादा समय ब्युटीपार्लर में देती है। महिला संगठन में पुरूष के खिलाफ लंबे भाषण दे सकती है।

विज्ञापन के रूप में किन्हे बढावा दिया जाता है? विज्ञापन में वास्तविक नायिकाये कहां है कल्पना चावला, मलाला, उर्मिला सिरोम, किरन बेदी कहीं नजर नही आती। नजर आती है तो सिर्फ सनी लियोन सहित वे फिल्मी अभिनेत्रियां जिन्होंने स्त्री चेतना को कमजोर ही किया है। दुखद तथ्य है कि सरकारी विज्ञापन भी इसी राह पर चलते है।

हाल ही में रिलीज हुई मूवी गुलाब गैंग इन दिनों काफी चर्चा में है। इस फिल्म के बहाने मै इस गैंग पर चर्चा करने का मजबूर हुआ। गुलाबी गैंग के जन्म की कहानी कुछ इस प्रकार है--

गुलाबी गैंग की संस्थापक सदस्य संपत पाल का जन्म वर्ष 1960 में बांदा के बैसकी गांव के एक पिछड़े परिवार में हुआ। 12 साल की उम्र में एक सब्ज़ी बेचने वाले से शादी हो गई थी। शादी के चार साल बाद गौना होने के बाद संपत अपने ससुराल चित्र कूट ज़िले के रौलीपुर-कल्याणपुर आ गई थी।

उनका सामाजिक सफ़र तब शुरु हुआ जब उन्होंने गांव के एक दलित परिवार को अपने घर से पानी पीने के लिए दिया, जिस कारण उन्हें गांव से निकाल दिया गया, लेकिन संपत कमज़ोर नहीं पड़ी और गांव छोड़ परिवार के साथ बांदा के कैरी गांव में आ बसी।

संपत कहती है, क़रीब दस साल पहले जब उन्होंने अपने पड़ोस में रहने वाली एक महिला के साथ उसके पति को मार-पीट करते हुए देखा तो उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की और तब उस व्यक्ति ने इसे अपना पारिवारिक मामला बता कर उन्हें बीच-बचाव करने से रोक दिया था।

इस घटना के बाद संपत ने पांच महिलाओं को एकजुट कर उस व्यक्ति को खेतों में पीट डाला और यहीं से उनके 'गुलाबी गैंग' की नींव रखी गई। गुलाबी गैंग ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, जहां कहीं भी उन्होंने किसी तरह की ज़्यादती होते देखी तो वहां दल-बल के साथ पहुंच गईं और ग़रीबों, औरतों, पिछड़ों, पीड़ितों, बेरोज़गारों के लिए लड़ाई लड़नी शुरु कर दी.

स्थानीय लोग कहते हैं,''संपत ना तो कभी पुलिस-प्रशासन के सामने झुकीं ना ही उन्होंने कभी इलाक़े के दस्यु सरगनाओं के आगे हथियार डाले.'' वर्ष 2006 में संपत एक बार फिर चर्चा में आईं जब उन्होंने दुराचार के एक मामले में अतर्रा के तत्कालीन थानाध्यक्ष को बंधक बना लिया था। मऊ थाने में अवैध खनन के आरोप में पकड़े गए मज़दूरों को छोड़ने की मांग को लेकर तहसील परिसर में धरने पर बैठी गुलाबी गैंग की महिलाओं पर जब पुलिस ने बल प्रयोग किया तब गुलाबी गैंग की महिलाओं ने एसडीएम और सीओ को दौड़ा-दौड़ा कर ना सिर्फ मारा बल्कि उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया। इन घटनाओं के बाद राज्य के पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने गुलाबी गैंग को नक्सली संगठन करार देते हुए संपत पाल सहित कई महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन तब तक संपत काफ़ी आगे निकल चुकीं थी।

गुलाबी साड़ी पहनने वाली महिलाओं का गुलाबी गैंग, यूपी की सपा सरकार के खिलाफ बुंदेलखंड में एक अनोखा महिला आंदोलन चला रहा है। इस गैंग में 10 हजार से ज्यादा महिलाएं हैं। ये महिलाएं अपने साथ डंडा और रस्सी लेकर चलती हैं।

बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में फैला हुआ बेहद पिछड़ा और अपेक्षित अंचल है। पिछले 5 सालों से यहां भयंकर सूखा पड़ रहा है। बड़ी तादाद में यहां किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। रोजी-रोटी की तलाश में गांवों से सामूहिक पलायन हो रहा है। इस पृष्ठभूमि में गुलाबी गैंग का जन्म हुआ। गैंग की कमांडर संपत देवी कहती हैं कि बुंदेलखंड के सात जन पदों झांसी, बांदा, चित्रकूट, महोबा, ललितपुर, हमीरपुर और जालौन के गाँवों में किसानों और खेत मज़दूरों की हालत बहुत बुरी है। उस पर दुर्भाग्य यह है कि केंद्र सरकार की सामाजिक सुरक्षा के तहत चलाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं का लाभ यूपी की राज्य सरकार आम आदमियों तक नहीं पहुंचने दे रही।

आज जहां गांधी गिरी अन्नागिरी फेल हो रही है, वहीं गुलाबी गैंग की महिलाओं के काम करने का तरीका बड़ा ही मौलिक और अनोखा है। मगर वास्तविक जीवन में कठिन संघर्ष करने वाले इस गुलाबी गैंग का नाम अभी बुंदेलखंड के बाहर कम ही जाना जाता है। 

महिला उत्पीड़न, दहेज़ प्रथा, बाल विवाह, जैसे कई मोर्चों के साथ भ्रष्टाचार से लड़ रहे गुलाबी गैंग को कई बार पुलिस के दमन का भी मुकाबला करना पड़ा है। गुलाबी गैंग जब किसी बड़े अधिकारी के खिलाफ आंदोलन चलाता है तो पुलिस हर गुलाबी साड़ी वाली महिला की गिरफ्तारी में जुट जाती है। ऐसे में इलाके की महिलाएं गुलाबी साड़ी पहनने से बचने लगती हैं। वहीं दूसरा पहलू यह है कि जब किसी महिला का किसी सरकारी दफ्तर में कोई काम अटका होता है तो वह गुलाबी साड़ी पहनकर दफ्तर चली जाती है और उसका काम हो जाता है।

गुलाबी गैंग का धरना-प्रदर्शन का अपना तरीका है। गैंग की मेंबर काम न करने वाले अधिकारी के दफ्तर में घुस जाती है और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेती हैं। पहले एक-दो घंटे चुपचाप बैठी रहती हैं। अगर तब भी वह काम नहीं करता है, तो फिर उसके टेबल पर तब तक मुक्के बरसाए जाते हैं, जब तक कि वह हाथ जोड़कर माफी नहीं मांगने लगता। दफ्तर के बाहर उनका स्टाइल यह होता है कि अधिकारी को गाड़ी से उतार कर पैदल चलवाया जाता है।

वर्ष 2011 में अंतरराष्ट्रीय 'द गार्जियन' पत्रिका ने गुलाबी गैंग की कमांडर संपत पाल को दुनिया की सौ प्रभावशाली प्रेरक महिलाओं की सूची में शामिल किया, कई संस्थाओं ने गैंग पर डॉक्यूमेंटरी फिल्में तक बना डाली. गुलाब गैंग की नेत्रियों ने फ्रांस की ओह पत्रिका में जगह बनाई, और अंतरराष्ट्रीय महिला संगठनों द्वारा आयोजित महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम में भाग लेने पेरिस और इटली भी जा चुकी है।

मीडिया की सुर्खियों मे आने के बाद गुलाबी गैंग किसी षड.यंत्र का शिकार हो गई। उसकी जङे कमजोर हुई है। लेकिन बुंदेलखण्ड में इनकी सक्रियता आज भी देखी जा सकती है। आज शहरी शिक्षित महिलाओं को इन अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं से सीखने की जरूरत है। गुलाबी गैंग भले ही उन रीति रिवाज़ों, धार्मिक क्रिया कलापों को तोड़ने का कभी प्रयास नही करती जो स्त्री के सम्मान के विरूद्ध है। लेकिन उनकी एक जुटता और साहस क़ाबिले तारीफ है।

ये चुनौती आज महिला संगठनों के सामने सीना ताने खड़ी है कि क्या कभी स्त्री उन धार्मिक रीति रिवाजों के विरूद्ध खड़ी हो सकेगी जो उसे हलाला, इद्दत की मुद्दत के लिए बाध्य करती तो कभी ढोर गवार का दर्जा देती ? क्या कभी उन बंधनों को तोङ सकेगी जो उसे एक दान की वस्तु समझते है ? क्या कभी ऐसे ग्रंन्थों की होली जलायेगी जो उसे नरक का द्वार कहती, सती प्रथा, कन्या वध प्रथा, भ्रूण हत्या करने को उकसाती ? क्या ऐसे नायकों की पूजा करने से मना करेगी जो गर्भवती स्त्री को घर से निकालना आदर्श समझता हो ? अक्सर ऐसा देखा जाता है। स्त्री उन्ही कुरितियों की जङे सींचती आई है जो उसे बेङियों में जकङती है। दरअसल स्त्रियों की पहली लङाई अपने आप से है।

मेरा मानना है स्त्री चेतना सही मायने में तब शिखर पर पहुँचेगी जब वह इन चुनौतियों के विरूद्ध खड़ी होकर संघर्ष करेगी। क्योंकि यही स्त्री शोषण की जन्म स्थली है।

A landmark judgment in fight to eradicate manual scavenging

PRESS RELEASE

Date: 27th March 2014

A landmark judgment in fight to eradicate manual scavenging

New Delhi.

Safai Karmachari Andolan welcomes historic judgment of Supreme Court on eradication of inhuman practice of manual scavenging. In its judgment today Supreme Court has deprecated the continuance of manual scavenging in the country in blatant violation of Article 17 of the Constitution of India by which, "untouchability is abolished and its practice in any form is forbidden". The court was emphatic about the duty cast on all sates and union territories "to fully implement (the Law) and to take action against the violators. In a significant endorsement of concerns raised by Safai Karmachari Andolan, the Supreme Court directed the government to, "Identify the families of all persons who have died in sewerage work (manholes, septic tanks) since 1993 and award compensation of Rs.10 lakhs for each such death to the family members depending on them". The judgment has been given by Supreme Court Bench headed by Chief Justice P Sathasivam.

The court has been categorical that, "If the practice of manual scavenging has to be brought to a close and also to prevent future generations from the inhuman practice of manual scavenging, rehabilitation of manual scavengers will need to include:-

(a) Sewer deaths – entering sewer lines without safety gears should be made a crime even in emergency situations. For each such death, compensation of Rs. 10 lakhs should be given to the family of the deceased.

(b) Railways– should take time bound strategy to end manual scavenging on the tracks.

(c) Persons released from manual scavenging should not have to cross hurdles to receive what is their legitimate due under the law.

(d) Provide support for dignified livelihood to safai karamchari women in accordance with their choice of livelihood schemes.

Court also said that rehabilitation must be based on the principles of justice and transformation. The court also directed the Indian Railways, which is the largest employer of manual scavengers in the country, to take time bound strategy to end manual scavenging on the tracks.

National convenor of Safai Karamchari Andolan Bezwada Wilson said that,this is a victory of manual scavengers who have been fighting across the country for their liberation against the denial of central and various state governments repeatedly. The court acknowledged the significance of the data provided by the petitioner Safai Karmachari Andolan in its 12 years legal battle demonstrating, "that the practice of manual scavenging continues unabated. Dry latrines continue to exist notwithstanding the fact that the 1993 Act was in force for nearly two decades. States have acted in denial of the 1993 Act and the constitutional mandate to abolish untouchability."

Safai Karmachari Andolan, who has been spearheading the movement to end this obnoxious practice of manual scavenging across the country from last thirty years, said that the judgment has been huge armor in our fight and we are not going to rest until this judgment is fully implemented in letter and spirit across the country. The mission of Safai Karmachari Andolan is not to sleep until the last manual scavenger is liberated and rehabilitated with a dignified profession.


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Bezwada Wilson 
National Convenor
Safai Karmchari Andolan,
36 / 13 Ground Floor, East Patel Nagar
New Delhi - 110 008
Mob - 09311234793 , Ph-01125863166
www.safaikarmchariandolan.org
e-mail skandolan@gmail.com

भाड़ में जाये ऐसे दलित नेता !





देश मे दलित बहुजन मिशन के दो मजबूत स्तम्भ अचानक ढह गये, एक का मलबा भाजपा मुख्यालय में गिरा तो दूसरे का एनडीए में, मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ, मिट्टी जैसे मिट्टी में जा कर मिल जाती है, ठीक वैसे ही सत्ता पिपासु कुर्सी लिप्सुओं से जा मिले। वैसे भी इन दिनों भाजपा में दलित नेता थोक के भाव जा रहे है, राम नाम की लूट मची हुई है, उदित राज (रामराज), रामदास अठावले, रामविलास पासवान जैसे तथाकथित बड़े दलित नेता और फिर मुझ जैसे सैकड़ों छुटभैय्ये, सब लाइन लगाये खड़े है कि कब मौका मिले तो सत्ता की बहती गंगा में डूबकी लगा कर पवित्र हो लें।

एक तरफ पूंजीवादी ताकतों से धर्मान्ध ताकतें गठजोड़ कर रही है तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की शक्तियां साम्प्रदायिक ताकतों से मेलमिलाप में लगी हुई है, नीली क्रान्ति के पक्षधरों ने आजकल भगवा धारण कर लिया है, रात दिन मनुवाद को कोसने वाले 'जयभीम' के उदघोषक अब 'जय सियाराम' का जयघोष करेंगे। इसे सत्ता की भूख कहे या समझौता अथवा राजनीतिक समझदारी या शरणागत हो जाना ?


आरपीआई के अठावले से तो यही उम्मीद थी, वैसे भी बाबा साहब के वंशजो ने बाबा की जितनी दुर्गत की, उतनी तो शायद उनके विरोधियों ने भी नहीं की होगी, सत्ता के लिये जीभ बाहर निकालकर लार टपकाने वाले दलित नेताओं ने महाराष्ट्र के मजबूत दलित आन्दोलन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और हर चुनाव में उसे बेच खाते है। अठावले जैसे बिकाऊ नेता कभी एनसीपी, कभी शिव सेना तो कभी बीजेपी के साथ चले जाते है, इन जैसे नेताओं के कमीनेपन की तो बात ही छोडि़ये, जब क्रान्तिकारी कवि नामदेव ढसाल जैसे दलित पैंथर ही भीम शक्ति को शिवशक्ति में विलीन करने जा खपे तो अठावले फठावले को तो जाना ही है।


रही बात खुद को आधुनिक अम्बेडकर समझ बैठै उतर भारत के बिकाऊ दलित लीडरों की, तो वे भी कोई बहुत ज्यादा भरोसेमंद कभी नहीं रहे, लोककथाओं के महानायक का सा दर्जा प्राप्त कर चुके प्रचण्ड अम्बेडकरवादी बुद्ध प्रिय मौर्य पहले ही सत्ता के लालच में गिर कर गेरूआ धारण करके अपनी ऐसी तेसी करा चुके है, फिर उनकी हालत ऐसी हुई कि धोबी के प्राणी से भी गये बीते हो गये, अब पासवान फिर से पींगे बढाने चले है एनडीए से। इन्हें रह रह कर आत्मज्ञान हो जाता है, सत्ता की मछली है बिन सत्ता रहा नहीं जाता, तड़फ रहे थे, अब इलहाम हो गया कि नरेन्द्र मोदी सत्तासीन हो जायेंगे, सो भड़वागिरी करने चले गये वहाँ, आखिर अपने नीलनैत्र पुत्ररतन चिराग पासवान का भविष्य जो बनाना है, पासवान जी, जिन बच्चों का बाप आप जैसा जुगाड़ू नेता नहीं, उनके भविष्य का क्या होगा ? अरे दलित समाज ने तो आप को माई बाप मान रखा था, फिर सिर्फ अपने ही बच्चे की इतनी चिन्ता क्यों ? बाकी दलित बच्चों की क्यों नहीं ? फिर जिस वजह से वर्ष 2002 में आप एनडीए का डूबता जहाज छोड़ भागे, उसकी वजह बने मोदी क्या अब पवित्र हो गये ? क्या हुआ गुजरात की कत्लो गारत का, जिसके बारे में आप जगह-जगह बात करते रहते थे। दंगो के दाग धुल गये या ये दाग भी अब अच्छे लगने लगे ? लानत है आपकी सत्ता की लालसा को, इतिहास में दलित आन्दोलन के गद्दारों का जब भी जिक्र चले तो आप वहाँ रामविलास के नाते नहीं भोग विलास के नाते शोभायमान रहे, हमारी तो यही शुभेच्छा आपको।


एक थे रामराज, तेजतर्रार दलित अधिकारी, आईआरएस की सम्मानित नौकरी, बामसेफ की तर्ज पर एससी एसटी अधिकारी कर्मचारी वर्ग का कन्फैडरेशन बनाया, उसके चेयरमेन बने, आरक्षण को बचाने की लड़ाई के योद्धा बने, देश के दलित बहुजन समाज ने इतना नवाजा कि नौकरी छोटी दिखाई पड़ने लगी, त्यागपत्रित हुये, इण्डियन जस्टिस पार्टी बनाई, रात दिन पानी पी पी कर मायावती को कोसने का काम करने लगे, हिन्दुओं के कथित अन्याय अत्याचार भेदभाव से तंग आकर बुद्धिस्ट हुये, रामराज नाम हिन्दू टाइप का लगा तो सिर मुण्डवा कर उदितराज हो गये। सदा आक्रोशी, चिर उदास जैसी छवि वाले उदितराज भी स्वयं को इस जमाने का अम्बेडकर मानने की गलतफहमी के शिकार हो गये, ये भी थे तो जुगाड़ ही, पर बड़े त्यागी बने फिरते , इन्हें लगता था कि एक न एक दिन सामाजिक क्रांति कर देंगे, राजनीतिक क्रान्ति ले आयेंगे, देश दुनिया को बदल देंगे, मगर कर नहीं पाये, उम्र निरन्तर ढलने लगी, लगने लगा कि और तो कुछ बदलेगा नहीं खुद ही बदल लो, सो पार्टी बदल ली और आज वे भी भाजपा के हो लिये।


माननीय डाॅ. उदित राज के चेले-चपाटे सोशल मीडिया पर उनके भाजपा की शरण में जाने के कदम को एक महान अवसर, राजनीतिक बुद्धिमता और उचित वक्त पर उठाया गया उचित कदम साबित करने की कोशिशो में लगे हुये है। कोई कह रहा है - वो वाजपेयी ही थे जिन्होेंने संविधान में दलितों के हित में 81, 82, 83 वां संशोधन किया था, तो कोई दावा कर रहा है कि अब राज साहब भाजपा के राज में प्रौन्नति में आरक्षण, निजी क्षैत्र में आरक्षण जैसे कई वरदान दलितों को दिलाने में सक्षम हो जायेंगे, कोई तो उनके इस कदम की आलोचना करने वालों से यह भी कह रहा है कि उदितराज की पहली पंसद तो बसपा थी, वे एक साल से अपनी पंसद का इजहार कुमारी मायावती तक पंहुचाने में लगे थे लेकिन उसने सुनी नहीं, बसपा ने महान अवसर खो दिया वर्ना ऐसा महान दलित नेता भाजपा जैसी पार्टी में भला क्यों जाता ? एक ने तो यहाँ तक कहा कि आज भी मायावती से सतीश मिश्रा वाली जगह दिलवा दो, नियुक्ति पत्र ला दो, कहीं नहीं जायेंगे उदित राज ! अरे भाई, सत्ता की इतनी ही भूख है तो कहीं भी जाये, हमारी बला से भाड़ में जाये उदित राज! क्या फरक पड़ेगा अम्बेडकरी मिशन को ? बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार तथा अम्बेडकर का मिशन तो एक विचार है, एक दर्शन है, एक कारवां हैं, अविरल धारा है, लोग आयेंगे, जायेंगे, नेता लूटेंगे, टूंटेंगे, बिकेंगे, पद और प्रतिष्ठा के लिये अपने अपने जुगाड़ बिठायेंगे, परेशानी सिर्फ इतनी सी है कि रामराज से उदितराज बने इस भगौड़े दलित लीडर को क्या नाम दे , उदित राज या राम राज्य की ओर बढ़ता रामराज अथवा भाजपाई उदित राम ! एक प्रश्न यह भी है कि बहन मायावती के धुरविरोधी रहे उदित राज और रामविलास पासवान सरीखे नेता भाजपा से चुनाव पूर्व गठबंधन कर रहे हैं अगर चुनाव बाद गठबंधन में बहनजी भी इधर आ गई तो एक ही घाट पर पानी पियोगे प्यारों या फिर भाग छूटोगे ?


इतिहास गवाह है कि बाबा साहब की विचारधारा से विश्वासघात करने वाले मिशनद्रोही तथा कौम के गद्दारों को कभी भी दलित बहुजन मूल निवासी समुदाय ने माफ नहीं किया। दया पंवार हो या नामदेव ढसाल, संघप्रिय गौतम, बुद्धप्रिय मौर्य अथवा अब रामदास अठावले, रामविलास पासवान तथा उदित राज जैसे नेता, इस चमचायुग में ये चाहे कुर्सी के खातिर संघम् (आरएसएस) शरणम् हो जाये, हिन्दुत्व की विषमकारी और आक्रान्त राजनीति के तलुवे चाटे मगर दलित बहुजन समाज बिना निराश हुये अपने आदर्श बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में आगे बढ़ेगा, उसे अपने समाज के बिकाऊ नेताओं के 'भगवा' धारण करने का कोई अफसोस नहीं होगा, अफसोस तो इन्हीं को करना है, रोना तो इन्ही नेताओं को है। हाँ, यह दलित समाज के साथ धोखा जरूर है, मगर काला दिन नहीं, दोस्तों वैसे भी मोदी की गोदी में जा बैठे गद्दार और भड़वे नेताओं के बूते कभी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन सफलता नहीं प्राप्त करता, ये लोग अन्दर ही अन्दर हमारे मिशन को खत्म कर रहे थे, अच्छा हुआ कि अब ये खुलकर हमारे वर्ग शत्रुओं के साथ जा मिलें। हमें सिर्फ ऐसे छद्म मनुवादियों से बचना है ताकि बाबा साहब का कारवां निरन्तर आगे बढ़ सके और बढ़ता ही रहे ..... !

-भँवर मेघवंशी 
(लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नो पर राजस्थान में सक्रिय है तथा स्वतंत्र पत्रकार है)

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EXECUTION OF SHUMBH, NISHUMBH & MAHISHASUR
Demons ( Asurs) by Hindu mythology:
1.) Mahishasur: the king of Purliya Distt.of West Bengal & Mysore (Karnatka) ( todays Yadav caste),
2.) Prachanda: the king of upper Himalya (Nepal) ( today Maoist),
3.) Chamar: The king of Asur (Shiva) North India ( Today Dalit),
4.) Mahahanu:शिव। (. तक्षक जाति का एक प्रकार का साँप), Shiva's people/follower,
5.) Dahan: The demon of Sambalpur distt. Haryana( Today's Jat ),
6.) Vikataksha: Chief of the Asuras, in the reign of king Bali.Non-Aryans, (Today non-Brahamins)
7.) Mahamauli: Barbarian ( outsider of the Aryavarta),Non-Aryans Today Non-Brahamins
8.) Shumbh and Nishumbh: The kings of Vindyachal mountain in Madhya Predesh ( todays Dalit & backwords in Vindhyachal distt) 
The demons named Shumbh and Nishumbh had received boons from Brahma according to which no deity, demon or Man could kill him. Shumbh and Nishumbh became excessively arrogant and started tormenting the deities. All the deities including Lord Vishnu went to Lord Shiva and requested for his help. Lord Shiva assured them that both the demons would be killed at the opportune time. The deities were satisfied and returned back to their respective abodes. Parvati was of dark complexion. She thought that Shiva would be more affectionate towards her if she somehow discarded her dark skin. She eventually discarded her dark skin at a place and it instantly got transformed into 'Kali Kaushiki'. She then did an austere penance at Vindhyachal mountain. At that time, Shumbh and Nishumbh lived there. When both the demons saw goddess Kali Kaushiki her divine beauty infatuated them. But Goddess Kali Kaushiki ultimately killed both of them.
Mahishasur--the demon sent a female messenger to convince Parvati into marrying him. The female messenger disguised herself as a female hermit and tried to impress all the three goddess who were keeping surveillance by praising the glory of Mahishasur--
Goddess Chamunda (Durga) severed the heads of 'Chand' and 'Mund' with her chakra. Mahishasur was enraged and he attacked goddess Durga. Some other demons like Prachanda, Chamar, Mahamauli, Mahahanu, Ugravaktra, Vikataksha and Dahan also came forward to help him but each one of them was killed by goddess Durga. Now, Mahishasur's anger crossed all limits and he menacingly ran towards goddess Durga. A severe battle was fought between both of them. When Mahishasur realized that the goddess was dominating the battle, he started changing his guises frequently. He tried to dodge goddess Durga by transforming his appearance into that of a boar. But, goddess Durga kept on chasing him. Then, Mahishasur became a lion. This way he kept on changing his appearances frequently to avoid getting killed by goddess Durga. Once he transformed himself into a buffalo but goddess Durga attacked him.
This way, Mahishasur was forced to change his appearance frequently on account of relentless attack by goddess Durga. Ultimately Durga killed him. Goddess Durga picked up his severed head and danced in joy. The deities were relieved at the death of Mahishasur.
Ref.:- http://www.bharatadesam.com/spiritual/skanda_purana.php