Fwd: [D.M.A.-:1855] आमिर खान सचमुच बधाई के पात्र हैं

             आमिर खान के सत्य मेव जयते के ८ जुलाई  २०१२ के एपिसोड पर  बुद्धिजीवियों की जो प्रतिक्रियाय्रें फेसबुक पर आयीं हैं, उनमें अधिकाँश निराश करने वाली हैं. ऐसा लगता है कि जिस तरह  वाल्मीकि समाज के लोगों ने उसे काफी पसंद किया है, उस तरह से  अन्य लोगों ने उसका स्वागत नहीं किया है. कुछ ने इसे गांधीवादी माडल से परोसा गया प्रोग्राम बताया है, तो कुछ की शिकायत यह है कि इसमें डा. आंबेडकर और उनके जाति उन्मूलन आन्दोलन का  जिक्र नहीं किया गया है. कुछ का यह कहना है कि आमिर खान नाम का आदमी सरोकार का धंधा कर रहा है, इसलिए वे इस प्रहसन को महत्व नहीं देते.  किसी ने यह भी कहा कि आमिर खान मैला उठाने के इशु को भी भुना रहा है. एक टिप्पणी यह भी है कि इस समस्या को समझने में आमिर खान ने बहुत ज्यादा समय लगा लिया. और भी बहुत सारी टिप्पणियां हैं, पर मुख्य रूप से दलित बुद्धिजीवी इसलिए ज्यादा नाराज़ हैं कि आमिर खान ने डा. आंबेडकर का उल्लेख क्यों नहीं किया? 
            मेरी समझ में नहीं आता कि ये कैसी सामजिक चिताओं के बुद्धिजीवी हैं कि दलित गरिमा के इतने जरुरी और महत्वपूर्ण सवाल को उठाने वाले प्रोग्राम का भी उन्होंने स्वागत नहीं किया. आमिर खान ने इस एपिसोड  में जिस शिद्दत से मानवीय गरिमा को केंद्र में रखा है, वह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है. इसमें वाल्मीकि समुदाय की पीड़ा को ही नहीं, बल्कि चमारों की पीड़ा को भी दिखाया  गया है. केवल  हिन्दू समाज ही नहीं, बल्कि उसमें   मुस्लिम, ईसाई और सिख समाजों में  मौजूद जातिभेद का गन्दा चेहरा भी  दिखाया गया है.  मगर खेद है कि इन समाजों के लोगों की इस पर कोई टिप्पणी पढने को नहीं मिली. यह गाँधी और आंबेडकर के नज़रिए से जातिवाद पर बहस करने वाला कोई दार्शनिक  कार्यक्रम नहीं था, वरन यह एपिसोड देश के भद्र जनों की आँखों का जाला साफ़  करने के लिए था, ताकि वे  इक्कीसवीं सदी में भी छुआछूत और जातिभेद की भयानक मौजूदगी को देख लें.  माना  कि आमिर खान ने  पैसों के लिए सत्य मेव जयते बनाया है, इसमें सरोकारों के व्यवसायीकरण की बात भी गलत नहीं है, पर क्या इस आधार पर किसी रचनात्मक काम की आलोचना की जानी चाहिए?  जो व्यावसायिकता गंभीर सामजिक मुद्दों पर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करती हो, जिसने  सरकारों तक को झकझोर दिया हो, उस व्यावसायिकता को कोसना सही समझ  नहीं है. इसी  बिना पर यदि कोई इसे आमिर खान का नाटक या प्रहसन समझता है, तो मुझे पक्का यकीन है कि सरोकारों से उसका रिश्ता हीनहीं है. संभवता ऐसे ही लोग आमिर खान का कार्यक्रम देख कर सवर्ण अस्मिता का सवाल उठा रहे हैं. क्या व्यवसायिकता के सन्दर्भ में उन दलित एन जी ओ  पर बात न करें, जो करोड़ों रूपये खर्च करके भी एक भी दलित समस्या पर देश का ध्यान आकर्षित नहीं कर सके, सिवाय सफाई कर्मचारी आन्दोलन को छोड़ कर; जिसके लीडर बेजवाडा बिलसन हैं. केवल इसी व्यक्ति को देश के चारों कोनों में जन आन्दोलन करने और सुप्रीम कोर्ट में मामला ले जाने का श्रेय जाता है. 
           मेरे लिए यह बड़ी ख़ुशी की बात है कि आमिर के प्रोग्राम को वाल्मीकि समाज के लोगों ने बहुत पसंद किया है. यह इसलिए भी कि इस  प्रोग्राम ने मैला साफ़ करने वाले लोगों की विचलित कर देने वाली जिन्दगी पर ज्यादा फोकस किया है. मुझे पूरा यकीन है कि इस ग्राम को देख कर बहुत से वाल्मीकि युवक-युवतियों में पढने के लिए संघर्ष की ललक पैदा हुई होगी. पर, उनमें से किसी ने भी गाँधी और बेडकर का सवाल नहीं उठाया. और न ही उन्होंने आमिर खान की नीयत पर सवाल उठाया है. बस आंबेडकर के नाम से वास्ता रखने वाले लोग  ही ये सवाल उठाया करते हैं. आंबेडकर मौजूद हैं, तो वे खुश, गाँधी गायब हैं, तो और भी खुश. ऐसे लोगों का क्या किया जाये, जो सिर्फ आंबेडकर का फोटो पोस्ट करने और जय भीम लिखने के सिवा कुछ नहीं करते. जब आमिर खान के प्रोग्राम में आंबेडकर का जिक्र न किये जाने की बात चली है, तो मुझे लगता है कि यह जिक्र डा. कौशल पवार अच्छे ढंग से कर सकतीं थीं. इस प्रोग्राम से यदि कोई हीरो बना है, तो डा. कौशल पवार ही बनीं हैं. जिस बेबाकी से उन्होंने अपनी पीड़ा और संघर्ष गाथा को प्रोग्राम में रखा, उस पूरी बातचीत में यदि वे डा. आंबेडकर को याद नहीं कर सकीं, तो जाहिर है कि आंबेडकर का उनकी जिंदगी में कोई रोल नहीं है. या वे भी वाल्मीकि समाज के उन लाखों लोगों में एक  हैं, जो आज भी आंबेडकर से नहीं जुड़े हैं. डा. कौशल लेखिका भी हैं, पर उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. यदि 
लिखी होती, तो वे  हिंदी में पहली आत्मकथा लेखिका होतीं. मेरा सुझाव है कि वे आत्मकथा जरूर लिखें. 
        आमिर खान सचमुच  बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने दलित गरिमा के सवाल को  पूरे राष्ट्र की गरिमा का सवाल बनाने का सबसे जरूरी काम किया है. 
                
Kanwal Bharti
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अब आसानी से बनेगा जाति प्रमाण पत्र


(गौर तलब है कि सिर्फ छत्तीसगढ में दलितों एवं आदिवासियों को जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए तरह-तरह से उल्झाया जा रहा है। जिसके विरूध में हाई कोर्ट की फटकार के बावजूद शासन के कानों जूं तक नही रेगती।)

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की एकलपीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में जाति प्रमाणपत्र के लिए १९५० के भू-अभिलेखों की अनिवार्यता नहीं होने की बात कही है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता को इसके बिना नियमानुसार जाति प्रमाणपत्र बनाकर देने के निर्देश दिए हैं।
कोरिया जिले के मनेंद्रगढ़ निवासी रामसजीवन ने मनेंद्रगढ़ एसडीओ के समक्ष स्थाई जाति प्रमाणपत्र बनवाने आवेदन दिया था। १९५० के पूर्व के भू-अभिलेख रिकार्ड प्रस्तुत नहीं करने पर उसके आवेदन को निरस्त कर दिया गया। इस पर उसने अधिवक्ता जितेंद्र पाली एवं मतीन सिद्दीकी के माध्यम से हाईकोर्ट में याचिका लगाई। इसमें बताया गया कि १९७० में उनके पिता की नियुक्ति एसईसीएल में हुई। उन्हें छत्तीसगढ़ के कोयलांचल एरिया में पदस्थ किया गया। १० दिसंबर १९८१ गंज उसका जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ। छत्तीसगढ़ शासन के सर्कुलर दिनांक २७ जून २००७ को छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार वह व्यक्ति जो केंद्र सरकार की नौकरी में छत्तीसगढ़ में पदस्थ हैं, वह उनकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं। छत्तीसगढ़ शासन के कर्मचारी उसकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के नागरिक हैं। संवैधानिक पद पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हुआ व्यक्ति उसकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के नागरिक होंगे। निगम, एजेंसी, कमिशन बोर्ड, बोर्ड के कर्मचारी व उनकी पत्नी व बच्चे छत्तीसगढ़ के नागरिक होंगे, परंतु उनकी जाति प्रेसीडेंटल आर्डर में दर्ज होनी चाहिए। याचिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायादृष्टांत कुमारी माधुरी विरुद्ध एडिशनल कमिश्नर, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की डीबी से पारित आदेश नरेंद्र डहरिया विरुद्ध छत्तीसगढ़ शासन में हुए निर्णय को प्रस्तुत किया गया। याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस सतीश अग्निहोत्री ने अंतिम आदेश पारित कर एसडीओ मनेंद्रगढ़ को कहा है कि वे नियमानुसार याचिकाकर्ता को जाति प्रमाणपत्र बनाकर दें, इसके लिए १९५० का भू-अभिलेख रिकार्ड नहीं मांगा जाना चाहिए।
यदि इससे संबंधित कोई आदेश आपके पास मौजूद हो तो क़पया इस ईमेंल पर प्रेषित करने का कष्ट करें।

movementassociation.dalit@gmail.com